अक्सर शब-ए-तन्हाई में ...


जब आह उन अहबाब को, मैं याद कर उठता हूँ जो
यूँ मुझसे पहले उठ गए, जिस तरह ताईर बाग़ के
या जैसे फूल और पत्तियाँ गिर जाएँ सब क़ब नज़-खिज़ां,
और कुश्क रह जाए शजर …
उस वक्त तन्हाई मेरी, बन कर मुजस्सम बेक़सी,
कर देती हैं पेश-ए-नज़र, वो हक़ सा इक वीरान घर,
बरबाद जिसको छोडके सब रहने वाले चल बसे ...

टूटे किवाड़ और खिड़कियाँ, छत के टपकने के निशाँ,
परनाले हैं रोज़न नहीं, यह हाल हैं आँगन नहीं,
पर्दे नहीं, चिलमन नहीं, इक शम्मा तक रोशन नहीं,
मेरे सिवा जिस में कोई, झांके न भूले से कभी,
वो खाना-ए-शाली है दिल, पूछे न जिसको दे कोई,
उझडा हुआ वीरान घर ...
...
***

No comments:

Post a Comment