जाने कैसा ख्वाब था, बरसों बीत गए... जब से आँखें खोली, नींद हराम हूई...


ऐसा नहीं के उनसे मोहब्बत नहीं रही,
जज़्बात में वो पेहेली सी शिद्दत नहीं रही ...

सर में वो इंतज़ार का सौदा नहीं रहा,
दिल पर वो धडकनों की हुकूमत नहीं रही ...

कमज़ोरी-ए-निगाह ने संजीदा कर दिया,
जलवों से छेड़ छाड़ की वो आदत नहीं रही ...

अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई "क़ुमार"...
अब मुझको ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही !
...
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