इस कदर अकेले हो गए हैं हम आज-कल, कोई सताता भी नहीं, कोई मनाता भी नहीं ..

सोचते और जागते, साँसों का इक दरिया हूँ मैं,
अपने गुम्गश्ता किनारों के लिए, बेहता हूँ मैं ..

जल गया सारा बदन इन मौसमों की आग में,
एक मौसम रूह का है, जिसमे अब जिंदा हूँ मैं ..

मेरे होंठों का तबस्सुम दे गया धोखा तुझे
तूने मुझको बाग़ जाना, देख ले सेहरा हूँ मैं ..

देखिये, मेरी पज़ीराई को अब आता हैं कौन,
लमहा भर को, वक्त की देहलीज़ पर आया हूँ मैं ..
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