अब कुछ अपनी तबीयत भी जुदा लगती है .. साँस लेते हैं तो ज़ख्मों को हवा लगती है ...

अक्सर शब-ए-तन्हाई में, कुछ देर पहेले नींद से
गुज़री हुयी दिलचस्पियाँ, बीते हुए दिन ऐश के,
बनते हैं शम्मे जिंदगी, और डालते हैं रौशनी
मेरे दिल-ए-सदचाक पर ...

वो बचपन और वो सादगी, वो रोना और हसना कभी,
फ़िर वो जवानी के मज़े वो दिल्लगी और वो कहकहे,
वो इश्क वो एहद-ए-वफ़ा, वो वादा और वो शुक्रिया.
वो लाज्ज़ते बज्म-ए-करम, याद आते हैं एक एक सब
दिल का कँवल जो रोज़-ओ-शब, रहता शगुफ़्ता था सो अब
उसका यह अबतर हाल है, एक सब्ज़-ए-पामाल है
एक फूल कुम्लाया हुआ, टूटा हुआ .. बिखरा हुआ ..
रोंदा पड़ा है ख़ाक पर .....

जो आरजूएं पहेले थीं, फ़िर ग़म से हसरत बन गयीं
ग़म दोस्तों के फ़ौत का, उनकी जवां मौत का,
ले देख शीशे में मेरे, उन हसरतों का खून है,
जो गर्दिश-ए-अय्याम से, जो किस्मत-ए-नाकाम से,
या ऐश-ए-ग़म अंजाम से, मर्ग-ए-बुत-ए-गुलफ़ाम से,
ख़ुद मेरे ग़म में मर गयीं, किस तरह पाऊं मैं हज़ीं,
क़ाबू दिल-ए-बेसब्र पर...

जब आह उन अहबाब को मैं याद कर उठता हूँ जो
यूँ मुझसे पहले उठ गए जिस तरह ताईर बाग़ के
या जैसे फूल और पत्तियाँ गिर जाएँ सब क़ब नज़-खिज़ां,
और कुश्क रह जाए शजर …..
उस वक्त तन्हाई मेरी, बन कर मुजस्सम बेक़सी,
कर देती हैं पेश-ए-नज़र, वो हक़ सा इक वीरान घर
बरबाद जिसको छोडके सब रहने वाले चल बसे
टूटे किवाड़ और खिड़कियाँ, छत के टपकने के निशाँ,
परनाले हैं रोज़न नहीं, यह हाल हैं आँगन नहीं,
पर्दे नहीं, चिलमन नहीं, इक शम्मा तक रोशन नहीं,
मेरे सिवा जिस में कोई, झांके न भूले से कभी,
वो खाना-ए-शाली है दिल, पूछे न जिसको दे कोई,
उझडा हुआ वीरान घर ...
...
***

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