अपनी हस्ती का भी इंसान को इर्फ़ान न हुआ, ख़ाक फिर ख़ाक थी, औकात के आगे न बढ़ी ..

मुझसा दे ज़माने को, परवरदिगार, दिल
आशुफ्ता दिल, फ़रीफ़्त दिल, बेक़रार दिल ...

निकले मेरी बगल से वो ऐसी तड़प के साथ,

याद आएगा मुझे वही बे-इख्तियार दिल ...

हर बार मांगती हैं नया चश्म-ए-यार दिल,
इक दिल को किस तरह से बनाऊं हज़ार दिल ...

करते हो एहद-ए-वस्ल तो इतना रहे ख़याल,
पैमान से ज़्यादा है, नापायेदार दिल ...

आलम हुआ तमाम, रहा उसको शौक़-ए-ज़ोर,
बरसाए आसमान से परवरदिगार, दिल ...

पहले पहेल की चाह का कीजे न इम्तिहान,
आना तो सीख ले अभी दो चार बार दिल ...

मशहूर हैं सिकंदर-ओ-जाम की निशानियाँ
ए 'दाग़' छोड़ जायेंगे हम यादगार दिल ...

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